The Author Damini Follow Current Read भारत का जिससे नाम हुआ वह वीर प्रतापी राजा भरत - 1 By Damini Hindi Motivational Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books The Courage of A Drunkard It was a cold December night, and the town lay in quiet slum... Met A Stranger Accidently Turned Into My Life Partner - 19 After listening to the announcement made by their professor... Cornered- The Untold Story - 1 Chapter 01: The Campus Crisis The student, with frantic step... THE WAVES OF RAVI - PART 18 THE LAST JOURNEY The municipal clock struck four. It was fou... King of Devas - 4 Garuda suppressed his anger, then opened and closed his eyes... 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ठीक वैसे ही जैसे एक मा से उसकी संतान और संतान से उसकी मा का अस्तित्व परे नहीं रह सकता है। वैसे ही शकुंतला से भरत दूर कहा रह सकता है। दौड़ते हुआ केवल रुकना है तो माता के समीप ही...... जैसे वो किसी यात्रा का हर्ष भरा पड़ाव है। जहा हर कष्ट का निदान है। ऐसी प्रीति से भरा भरत का मन माता के प्रति आरूढ़ अपार है।भरत अपनी माता के चरण स्पर्श करते हुए उनसे कहते है:- मा। इस बार आपको अचंभा होगी कि मैंने क्या देखा! शकुंतला:- अच्छा क्या देखा मेरे प्रिय पुत्र ने......भरत:- माता मैंने यह देखा कि माता चाहे किसी भी रूप में हो वो एक भाव कभी नहीं छोड़ती। क्या आपको पता है वो भाव कौन सा है।शकुंतला:- मुझे पता है पुत्र....भरत:- मेरे हर प्रश्न का हल आप कैसे जान जाती हो माता।शकुंतला:- ठीक उसी भाव के कारण जिससे हर माता अपने संतान के विषय में जान जाती है।ममता से बड़ा वो भाव क्या हो सकता है पुत्र।भरत:- माता आपने आज भी सही उत्तर दिया। वन आश्रम में भ्रमण करते हुए मैंने अनेकों जीव देखे और देखा कि सबकी माता कितने प्रेम से उनका पोषण कर रही थी। माता क्या मैं एक और प्रश्न पूछू???शकुंतला:- अवश्य पुत्र। अपना प्रश्न पूछो??? भरत:- मा गुरुदेव ने कहा था कि मनुष्य सभी जीवो में सर्वश्रेष्ठ है। परन्तु माता मेरी दृष्टि में हम सब एक समान है। और फिर क्यों हमें श्रेष्ठ होना चाहिए??शकुंतला सहजता से:- पुत्र। मनुष्य का श्रेष्ठ होने का अर्थ किसी प्रतियोगिता में श्रेष्ठ होना नहीं है अपितु मनुष्य का श्रेष्ठ होना इसलिए है ताकि वो सारी सृष्टि सारी जीव प्रजाति का सामंजस्य करे संतुलन स्थापित करे। संसार को एक नई गति दे।भरत:- तो फिर माता सभी मनुष्य ऐसा क्यों नहीं करते! क्यों नगर के बालक हीनता से हमें पुकारते है।शकुंतला:- ऐसा इसलिए है पुत्र क्योंकि उनका परिचय अभी वास्तविकता से नहीं हुआ है और मेरा पूरा विश्वास है कि तुम उन्हें सत्य सही समय पर अवश्य बताओगे। अरे अच्छा समय हो गया है। तुम्हारे भोजन का।भरत:- ठीक है माता।भोजन कक्षकुछ प्रवासी आश्रय लेते हुए। एक स्त्री अपनी पुत्री के साथ और उसका पति।स्त्री:- आपका अत्यंत आभार ऋषि कण्व जो आपने हमें आश्रय दिया।स्त्री की पुत्री ऋषि के चरण स्पर्श करते हुए:- धन्यवाद ऋषिवर। ऋषिवर आशीष देते हुए:- प्रसन्न भवा । आपकी पुत्री तो अति सुसंस्कृत है देवी। क्या नाम है इनका...स्त्री:- ऋषिवर मेरी इस पुत्री का नाम काशी है। और मेरे पति मनोनीत के साथ में हंसिका आपकी अति आभारी हूं जो आपने हमें आश्रय दिया।भरत:- काशी.... महादेव की काशी नगरी की तरह।काशी :- मेरा नाम ही काशी है मै काशी से नहीं आयी है। पर नगर से आई हूं।भरत:- तुम्हारा नाम ही ऐसा है कि मुझे ऐसा प्रतीत हुआ। पर मेरा आश्रय ये नहीं था।काशी की माता उसे संकेत देकर क्षमा कहने को कहती है।काशी कहती है:- नहीं नहीं आश्रय में तो हम आए है। आप थोड़े ही!! तो तुम्हे लज्जित होने की कोई आवश्यकता नहीं। ठीक है.....भरत मन में:- एक क्षण में क्रोधित और एक क्षण में शांत। लगता है ये अत्यधिक थकी हुई है संभवतः इसी कारण ऐसा कह रही है। मुझे ऋषिवर से इन्हें भोजन करने के लिए कहना चाहिए।भरत:- ऋषिवर भोजन के लिए हम सब को स्थान ग्रहण कर लेना चाहिए। समय काल के अनुसार ये क्षण उचित है।ऋषिवर:- सत्य कहा भरत....शकुंतला भोजन परोस कर भरत के साथ भोजन ग्रहण करने बैठती है और काशी को अपने पिता के हाथो से भोजन खाते देख भरत को आहत होता हुआ देख दुखी हो जाती है। पर भरत को भोजन कराना शुरू कर देती है। काशी ये सब देख कर कुछ सोचती है कि कैसे जब उसके पिता कार्य के कारण नहीं लौटते थे तो वो भी ऐसे ही भोजन ग्रहण करती थी।अचानक काशी पूछती है:- भरत। तुम्हारे पिता तुम्हारे साथ भोजन पर नहीं आए क्या? मेरे साथ भी ऐसा ही होता था जब कभी पिताजी नहीं आ पाते।भरत अन्न को प्रणाम करते हुए:- माता मेरा भोजन हो गया है और मुझे मित्र को मिलने जाना है। क्या मै जाऊ???शकुंतला मार्मिक दृष्टि से:- जाओ पुत्र पर जल्दी आना....शकुंतला भी अन्न को प्रणाम कर भोजन नहीं करती। और बहाना बनाते हुए कहती है कि:- स्वास्थ्य के खराब होने के कारण मेरा भोजन को मन नहीं है। मै वन्य जीव को इसे सौंप आती है।काशी यह देख अचंभित हो जाती है और ऋषिवर से पूछती है:- कि ऋषिवर क्या मैंने कुछ अनुचित किया क्या??ऋषिवर:- भाग्य का अनुचित ही सबसे बड़ा है। तुमने कुछ नहीं किया काशी। परन्तु...... जिस पुत्र ने कभी अपने पिता का मुख नहीं देखा वो उसके साथ भोजन करने की बात सुनकर विचलित हो तो स्वाभाविक है।काशी:- सत्य मै मा मुझे ज्ञात नहीं था कि....हंसिका:- मुझे पता है काशी। पर इस समय दोष से अधिक हमें उन दोनों के दुख को कम करने का प्रयास करना चाहिए। तुम भरत के पास जाओ और हम देवी शकुंतला को देखते है।क्या काशी और हंसिका शकुंतला और भरत के दुख को दूर कर पाएंगे???जानिए अगले भाग में Download Our App